श्रीकृष्ण जन्माष्टमी कल: श्रीकृष्ण की सीख: जब हम अपने कर्तव्य से भटकते हैं, तब हमारा मन अशांत हो जाता है, फल की इच्छा किए बिना कर्म करें

6 घंटे पहले

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जब हम श्रीमद् भगवद गीता का नाम सुनते हैं तो हमारे मन में एक ही चित्र उभरता है, कुरुक्षेत्र का युद्ध, अर्जुन का मोह और श्रीकृष्ण का उपदेश। आज बाहर की लड़ाइयां भले ही कम हो गई हैं, लेकिन हमारे मन में काफी अधिक संघर्ष चलते रहते हैं। कुरुक्षेत्र का युद्ध प्रतीक है उन अंतर्द्वंदों का जो हमारे मन में घटित होते हैं। अर्जुन का श्रीकृष्ण से ये कहना कि मैं युद्ध नहीं कर सकता। केवल एक योद्धा का मोह नहीं था, बल्कि एक संवेदनशील आत्मा का द्वंद्व भी था। गीता में श्रीकृष्ण ने युद्ध को केवल बाहरी कर्म नहीं, बल्कि भीतर की लड़ाई के रूप में प्रस्तुत किया है।

आत्मा अविनाशी है और सभी दुखों से परे है

गीता कहती है कि न ह्यंते हन्यमाने शरीरे। (अध्याय 2, श्लोक 20)। इस श्लोक में आत्मा और शरीर के बीच का अंतर स्पष्ट रूप से बताया है। हम अक्सर अपने आप को अपने विचारों, भावनाओं या शरीर के साथ जोड़ लेते हैं, लेकिन गीता कहती है कि आत्मा अविनाशी है, शुद्ध है और सभी दुखों से परे है। जब व्यक्ति इस शाश्वत सत्य को समझ लेता है तो भीतरी अशांति दूर होने लगती है। आत्मा की पहचान करना आत्मिक शांति की पहली सीढ़ी है।

धर्म यानी अपने कर्तव्य का मार्ग अपनाएं

गीता कहती है – स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः। (अध्याय 3, श्लोक 35)। इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि हर व्यक्ति का अपना एक स्वधर्म होता है, एक ऐसा कर्तव्य जो उसके स्वभाव और स्थिति के अनुसार तय होता है। जब हम अपने स्वधर्म यानी कर्तव्य से भटकते हैं, तब भीतर का द्वंद्व उत्पन्न होता है।

गीता का श्लोक (अध्याय 2, श्लोक 68) कहता है:

अथ चैत्त्वमिमं धर्म्यं संग्रामं न करिष्यसि। ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि।।

भगवान कहते हैं कि यदि तुम अपने धर्म से विमुख हो जाओगे, युद्ध नहीं करोगे तो तुम कर्तव्य से भटक जाओगे, पथ भ्रष्ट हो जाओगे।

आज के समय में लोग करियर, रिश्तों और जीवन की अपेक्षाओं में उलझकर अपने उद्देश्य से भटक जाते हैं, तब ये श्लोक बताता है कि जीवन में संतुलन तभी आता है जब हम अपने सत्य और धर्म से जुड़कर कार्य करते हैं।

निष्काम कर्म करें यानी परिणाम से मुक्त होकर काम करना

गीता का सबसे प्रसिद्ध सिद्धांत है निष्काम कर्म योग, अर्थात बिना फल की चिंता किए अपना कार्य करना। श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

गीता का ये सिद्धांत व्यक्ति को अपने प्रयासों पर केंद्रित रहने की प्रेरणा देता है, जिससे चिंता, तनाव और असफलता का भय दूर होता है। जब हम केवल परिणाम पर केंद्रित होते हैं, तब हमारे मन में असंतोष आता है। लेकिन जब हम कर्म में श्रद्धा रखते हैं, फल की चिंता किए बिना कर्म करते हैं, तब मन शांत होता है।

समत्व भाव रखें, सुख-दुख में संतुलन बनाए रखें

गीता कहती है कि सुख-दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। (अध्याय 2, श्लोक 38)

जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःख को समान मानकर अपने कर्म करना चाहिए। इस प्रकार युद्ध करने से हम पाप के भागी नहीं होते हैं, हमारे जीवन में शांति बनी रहती है।

कामना और क्रोध हैं अशांति के मूल कारण

गीता कहती है कि इच्छाएं जब पूरी नहीं होतीं तो क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध विवेक को नष्ट कर देता है। श्रीकृष्ण कहते हैं कि-

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति। (अध्याय 2, श्लोक 63)

विषयों का चिन्तन करने वाले व्यक्ति की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना यानी इच्छाएं पैदा होती हैं। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध होने पर विवेक नष्ट होता है, फिर बुद्धि का नाश होता है और मनुष्य का पतन हो जाता है। जीवन में शांति चाहते हैं तो इच्छाओं पर काबू करें। इच्छाएं नियंत्रित रहेंगी तो मन शात रहेगा।

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