बचपन की गलियों से मीठे रिश्ते तक
लाला जलेबी की दुकान किशोर दा के घर के ठीक पीछे थी. यहां का दूध और गरमागरम जलेबी उनके दिन की शुरुआत बन गई थी. दुकान के वर्तमान संचालक बादल शर्मा बताते हैं कि किशोर दा के पिता और उनके दादा गहरे दोस्त थे, और यही दोस्ती अगली पीढ़ी तक चलती रही.
किशोर कुमार अकसर दोस्तों के साथ दुकान पर आते और खिलखिलाते हुए कहते हैं कि “लाला जी, दूध-जलेबी तैयार करो.” दुकान पर जैसे ही वो पहुंचते, माहौल बदल जाता हंसी, शरारत और कभी-कभी सुरों की रिहर्सल भी यहीं होती.
जब डॉक्टर ने मना किया, फिर भी जलेबी नहीं छोड़ी
एक बार खंडवा में उनका कंसर्ट था. गला खराब था, डॉक्टर ने मीठा मना किया. लेकिन जाते-जाते बोले “लाला जी, जलेबी पहुंचा देना.” उसी शाम उन्होंने स्टेज पर कमाल कर दिया. यही तो था किशोर दा का अंदाज़ नियम तोड़कर भी लोगों को जोड़ना.
चाहे कितनी भी शोहरत पाई हो, किशोर कुमार जब भी खंडवा लौटे, सबसे पहले यहीं की जलेबी खाई. वो अक्सर कहा करते थे “मैं किशोर कुमार खंडवे वाला हूं.” यही जुड़ाव उन्हें आम से खास बनाता है.
आज भी लगती है भोग की थाली श्रद्धा की परंपरा ज़िंदा है
आज भी हर सुबह दुकान खुलने से पहले किशोर दा और संस्थापक दादा जी को दूध-जलेबी का भोग लगाया जाता है. यह सिर्फ परंपरा नहीं, श्रद्धा का वो तरीका है जो आज की पीढ़ी को भी अपनी मिट्टी से जोड़े रखता है.
पहले जहां सिर्फ दूध और जलेबी मिलती थी, अब कई और मिठाइयाँ जुड़ गई हैं. लेकिन जो ग्राहक वर्षों पहले किशोर दा के दौर में आते थे, वो आज भी आते हैं वही पुराने किस्से सुनाते हुए.
गानों में भी छलकती है वही मिठास
बादल शर्मा कहते हैं कि “ज़िंदगी एक सफर है सुहाना” कोई साधारण गाना नहीं, वो किशोर दा के जीवन दर्शन का आईना था. उनकी आवाज़ में जो मिठास थी, वो कहीं न कहीं इसी दुकान की जलेबी से शुरू हुई थी.
खंडवा की पहचान बन गई ये दुकान
आज लाला जलेबी की दुकान सिर्फ मिठाई बेचने की जगह नहीं, बल्कि खंडवा की संस्कृति, इतिहास और गर्व का प्रतीक बन चुकी है. एक कलाकार की सादगी, उसका प्यार, और उसकी आवाज़ यहां की जलेबी में घुल गई है.
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