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23 मिनट पहले
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16 अगस्त को भगवान श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण के उपदेशों को अपनाने से हमारी सभी समस्याएं दूर हो सकती हैं और शांति मिल सकती है। भगवान ने गीता में बताया है कि हम तुलना का भाव कैसे दूर कर सकते हैं…
कभी-कभी हम अपना काम कर रहे होते हैं, मन प्रसन्न होता है और फिर अचानक हम सोशल मीडिया पर किसी की शानदार छुट्टियां, नई चमचमाती कार, या परफेक्ट लाइफ की तस्वीरें देख लेते हैं। एक पल में हमारे मन में सवाल उठने लगते हैं, क्या हम पीछे रह गए हैं? ये तुलना का भाव है। जब तुलना का भाव हमारे मन में आता है तो तनाव बढ़ने लगता है।
तुलना करने की प्रवृत्ति नई नहीं है। महाभारत युद्ध के कुरुक्षेत्र में भी जब अर्जुन ने दूसरों की तुलना में खुद को देखा तो वे भी भ्रम और संदेह में पड़ गए। तब श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रीमद् भगवद गीता का ज्ञान दिया, ये ज्ञान आज भी हमारा जीवन बदल सकता है।
जानिए तुलना के भाव को कैसे दूर कर सकते हैं, आत्म-संतोष की ओर कैसे बढ़ें।
दूसरों के नहीं, सिर्फ अपने कर्म पर ध्यान दें
भगवद गीता (अध्याय 3, श्लोक 35) में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि
स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।
अर्थ: अपने धर्म (कर्तव्य) का पालन करना चाहिए, भले ही उसमें कुछ कमियां हों, दूसरे के धर्म यानी कर्म को अपनाने से बेहतर है, चाहे वह कितना ही आकर्षक क्यों न लगे।
इसका अर्थ ये है कि हर व्यक्ति की अपनी एक अलग राह होती है, अपना एक उद्देश्य और प्रकृति होती है। जब हम दूसरों की नकल करते हैं, तब भले ही हमें सफलता मिल जाए, लेकिन मन में खालीपन महसूस होते रहता है। जब हम अपनी यात्रा पर, अपने कर्म पर ध्यान लगाते हैं तो दूसरों की उपलब्धियां हमें बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाती हैं। हम तुलना के भाव से बच जाते हैं।
परिणाम से अधिक प्रयास को महत्व दीजिए
गीता के सबसे प्रसिद्ध श्लोकों में से एक है (अध्याय 2, श्लोक 47):
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
हमारा अधिकार केवल कर्म पर है, फल पर नहीं।
तुलना अक्सर परिणामों के आधार पर होती है, किसे प्रमोशन मिला, किसके पास कितना पैसा है, किसे कितनी पहचान मिली, लेकिन परिणाम कई बाहरी कारकों पर निर्भर होते हैं। अगर हमने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है और उससे हम सीखते हैं तो हमने पहले ही सफलता पा ली है। हमें सिर्फ अपने कार्यों पर ध्यान देना है, उसके फल पर नहीं। तभी तुलना का भाव दूर हो सकता है।
अपने स्वभाव को पहचानें और स्वीकार करें
गीता बताती है कि हर व्यक्ति तीन गुणों- सत्व (शुद्धता), रजस् (क्रिया), और तमस् (जड़ता) के प्रभाव में कार्य करता है। इनका अनुपात हर व्यक्ति में भिन्न होता है। इसलिए, किसी ऐसे व्यक्ति से अपनी तुलना करना जो हमारे स्वभाव से बिल्कुल अलग है, ये स्वाभाविक ही अनुचित है। जब हम अपने गुणों को समझते और स्वीकार करते हैं, तब हम अपनी प्रगति को वास्तविकता के धरातल पर मापते हैं, न कि कल्पनाओं में। ऐसी स्थिति में हमें तुलना करने के भाव से मुक्ति मिलती है।
अपने मन को नियंत्रित करें
गीता में कहा गया है कि मन ही मनुष्य का मित्र भी है और शत्रु भी, मन ही सभी बंधनों का कारक है। तुलना एक अस्थिर भाव है। ध्यान, आत्म-निरीक्षण और सतर्क विचारों के अभ्यास से मन स्थिर होता है। जब आत्म सम्मान भीतर से आता है तो दूसरों की सफलता हमें विचलित नहीं करती है और हम तुलना नहीं करते हैं। मन को नियंत्रित रखें, दूसरों पर नहीं अपने कर्मों पर ध्यान दें।
सबमें समानता देखना सीखिए
गीता कहती है कि ज्ञानी व्यक्ति सभी को समभाव से देखता है। जब हम सभी में परमात्मा को देखना शुरू करते हैं तो अच्छा या बुरा, कम या ज्यादा जैसी तुलना की भावना मिटने लगती है। खुद को कमजोर समझे बिना दूसरों को सम्मान करने लगते हैं।
जो चीजें स्थायी हैं, उन्हें थामे रखिए
श्रीकृष्ण बार-बार याद दिलाते हैं कि सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय सब अस्थायी हैं। अगर आपका आत्म-मूल्य रूप, धन या सामाजिक स्थिति पर आधारित है तो ये चीजे जैसे ही बदलती हैं, आप असुरक्षित महसूस करेंगे। हमारा चरित्र, साहस, करुणा और ज्ञान, ये ऐसी संपत्तियां हैं जो समय के साथ बढ़ती हैं और हमें भीतर से मजबूत बनाती हैं। इन्हें अपने जीवन में बनाए रखना चाहिए।
तुलना करें, लेकिन सिर्फ स्वयं से
सबसे स्वस्थ तुलना वह होती है, जो आप खुद से करते हैं। आज हम कल से ज्यादा शांत, कुशल या दयालु हैं, ये असली जीत है। जब हम दूसरों से आगे निकलने की बजाय, खुद को हर दिन बेहतर बनाने पर ध्यान देते हैं, तब जीवन में सकारात्मक बदलाव आते हैं। दूसरों की सफलता से प्रेरणा लें, लेकिन खुद की तुलना सिर्फ खुद से करें। यही भाव आत्मविश्वास, शांति और संतुलन की ओर ले जाता है।
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