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देवभूमि उत्तराखंड अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ समृद्ध वनस्पति के लिए भी जाना जाता है. यहां पहाड़ों में कई ऐसे पौधे मिलते हैं, जो औषधीय गुणों के साथ धार्मिक महत्व भी रखते हैं. इन्हीं में से एक है ‘पाती’, जिसे वैज्ञानिक भाषा में आर्टिमिसिया वल्गेरिस कहा जाता है. यह पौधा सालभर उगता है और अपनी खुशबू, औषधीय गुणों और धार्मिक उपयोगों के कारण पहाड़ी संस्कृति का अहम हिस्सा माना जाता है.
देवभूमि उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में ऐसे कई पेड़-पौधे पाए जाते हैं, जो औषधीय गुणों के साथ-साथ धार्मिक महत्व भी रखते हैं. इन्हीं में से एक है ‘पाती’, जिसे वैज्ञानिक भाषा में आर्टिमिसिया वल्गेरिस कहा जाता है. पाती का पौधा साल भर उगता है.

पहाड़ों में स्थानीय स्तर पर इसका खास उपयोग नहीं किया जाता, लेकिन पड़ोसी देश चीन में पाती किसानों के रोजगार का माध्यम बनी हुई है. चीन में किसान पाती की खेती करते हैं और इसकी पत्तियों से तेल निकाला जाता है. इसके बाद इस तेल का उपयोग कीटनाशक के रूप में किया जाता है.

देहरादून की आयुर्वेदिक चिकित्सक शालिनी बताती हैं कि ऐतिहासिक रूप से पाती यानी आर्टिमिसिया वल्गेरिस को जड़ी-बूटियों की जननी माना जाता था, क्योंकि इसका उपयोग पारंपरिक चीनी, यूरोपीय और हिंदू चिकित्सा पद्धतियों में व्यापक रूप से किया जाता रहा है. आर्टिमिसिया वल्गेरिस में कैंसररोधी, सूजनरोधी, एंटी-ऑक्सीडेंट, हेपेटोप्रोटेक्टिव, एंटी-स्पास्मोलाइटिक, एंटी-नॉसीसेप्टिव, जीवाणुरोधी, एंटी-हाइपरटेन्सिव, एंटी-हाइपरलिपिडेमिक और एंटी-फंगल गुण पाए जाते हैं. इसके साथ ही इससे तैयार किया जाने वाला तेल खुशबूदार होता है, जिसके कारण इसे एरोमैटिक प्लांट्स की कैटेगरी में भी शामिल किया जाता है.

पाती का पौधा पेट संबंधी समस्याओं को दूर करने में मदद करता है. इसके पत्ते पेट में होने वाले कीड़ों को जड़ से खत्म करते हैं. यह दाद-खाज और खुजली जैसी एलर्जी में भी कारगर माना जाता है. यदि त्वचा पर फुंसी या फोड़े हों, तो इसके पत्तों को धोकर उनका रस निकालकर प्रभावित स्थान पर लगाने से राहत मिलती है.

आचार्य योगेश कुकरेती बताते हैं कि पाती का धार्मिक महत्व भी है. पहाड़ी क्षेत्रों में धार्मिक मान्यताओं के अनुसार ऐसा कोई हवन या यज्ञ नहीं होता, जिसमें इस पौधे के पत्तों का उपयोग न किया जाता हो. इसके साथ ही पर्वतीय इलाकों में श्राद्ध के दौरान भी इसका विशेष महत्व माना जाता है. मान्यता है कि कोई भी श्राद्ध इस पौधे के बिना अधूरा माना जाता है.

उन्होंने बताया कि पुराने समय में जब धूप-अगरबत्ती उपलब्ध नहीं होती थी, तब पहाड़ के ग्रामीण क्षेत्रों में पूजा के दौरान पाती के पत्ते जलाए जाते थे. इसके पत्तों की खुशबू इतनी महकदार होती है कि इसके सामने बाज़ार की धूप-अगरबत्ती भी फीकी लगती है. प्रदेश के कई ग्रामीण इलाकों में आज भी पाती के पत्तों से पूजा की जाती है. आमतौर पर भी यदि आप पाती का पत्ता तोड़कर सूंघ लें, तो इसकी महक आपको तुरंत तरोताज़ा कर देती है और यह हमेशा एक सकारात्मक अनुभव कराती है.

पाती के पत्तों को जलाने पर मच्छर दूर भाग जाते हैं और यह प्राकृतिक एयर फ्रेशनर का काम करता है. मंदिर या घर में पाती के पत्तों से पूजा की जाए, तो इसकी महक पूरे वातावरण में फैल जाती है. मान्यता है कि पाती के पत्तों का हवन या आरती करने से वातावरण में शुद्धता और सकारात्मकता आती है. इसकी सुगंध नासिका तक पहुंचते ही मन शांत हो जाता है. पहाड़ों में माना जाता है कि देवी-देवता पाती के पत्ते अर्पित करने से प्रसन्न होते हैं.