Last Updated:
खरगोन की धार्मिक नगरी एवं अहिल्या बाई की राजधाई महेश्वर में अहिल्या उत्सव का आयोजन होगा. हर साल की तरह इस वर्ष भी राजबाड़ा परिसर में भव्य कार्यक्रम होंगे. खास बात यह है कि राजसी ठाठ के साथ नगर में पालकी यात्रा …और पढ़ें
कार्यक्रम की शुरुआत सुबह 8 बजे भवानी चौक स्थित अहिल्या बाई की प्रतिमा पर माल्यार्पण से होगी. राजपरिवार के सदस्य और प्रशासनिक अधिकारी यहां मौजूद रहेंगे. इसके बाद पालकी यात्रा निकलेगी, जिसमें राजसी छटा देखने को मिलेगी. यह यात्रा नगर के मुख्य मार्गों से होते हुए किला परिसर तक पहुंचेगी और राजबाड़ा परिसर में समाप्त होगी. वहां अहिल्या बाई की प्रतिमा का पूजन-अर्चन होगा और उनके आदर्शों को याद किया जाएगा.
पालकी यात्रा के बाद श्रद्धालु नर्मदा तट स्थित अहिल्या बाई की छत्री (समाधि स्थल) पर पहुंचेंगे. यहां परिजनों और अनुयायियों द्वारा पुष्पांजलि अर्पित की जाएगी. लगभग 11:30 बजे से साधु-संतों, परिक्रमावासियों और असहाय वर्ग के लोगों के लिए भंडारे का आयोजन होगा. यह परंपरा हर साल की तरह इस वर्ष भी उत्सव का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा होगी, जिसमें हजारों लोग प्रसादी का लाभ लेंगे.
लोगों ने दी मातोश्री की उपाधि
इतिहासकार हरीश दुबे बताते हैं कि अहिल्या बाई होलकर ने 1767 से 1795 तक 28 वर्षों तक शासन किया. उनका शासनकाल सादगी, न्यायप्रियता और धर्मनिष्ठा के लिए जाना जाता है. उनके मातृत्व भाव के कारण लोगों ने उन्हें देवी का रूप माना और मातोश्री की उपाधि दी. अहिल्या बाई स्वयं सिंहासन पर बैठने के बजाय भगवान शिव को विराजमान किया और गादी से शासन चलाया. आज भी उनकी वही गादी राजबाड़ा परिसर में सुरक्षित है, जो श्रद्धालुओं एवं पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है.
अहिल्या बाई का सबसे बड़ा योगदान धार्मिक धरोहरों के संरक्षण और पुनर्निर्माण में रहा. उन्होंने देशभर में मंदिर, घाट, धर्मशालाएं और बावड़ियां बनवाईं. औरंगजेब द्वारा तोड़े गए मंदिरों का जीर्णोद्धार करवाया. काशी विश्वनाथ, सोमनाथ, द्वारका और बद्रीनाथ जैसे प्रमुख तीर्थस्थलों का जीर्णोद्धार उनके प्रयासों से हुआ. 12 ज्योतिर्लिंगों का पुनर्निर्माण भी उन्होंने अपने निजी खर्चे से कराया. यह कार्य उन्होंने किसी राजा की तरह नहीं, बल्कि एक सेवक की तरह किया.
माहेश्वरी साड़ी अहिल्या बाई की देन
धर्म के साथ-साथ अहिल्या बाई ने अर्थव्यवस्था पर भी विशेष ध्यान दिया. उन्होंने हथकरघा उद्योग को बढ़ावा दिया और माहेश्वरी साड़ी की शुरुआत की. आज यही साड़ी भारत की सांस्कृतिक पहचान बन चुकी है और विश्वभर में लोकप्रिय है. स्थानीय बुनकर परिवार आज भी इसे गर्व के साथ बुनते हैं, उनकी आजीविका का मुख्य जरिए बन चुकी है. वर्मतमान में महेश्वर में करीब 8 हजार लोग माहेश्वर साड़ियां बुनने का काम कर रहे है.
.