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Paddy Disease: किसान धान की फसल की अधिक पैदावार के लिए तरह-तरह के जैविक एवं रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते हैं, जिससे उनकी फसल की पैदावार में बढ़ोतरी हो सके लेकिन धान की फसल में रोग लगने का खतरा ज्यादा रहता है. (रिपोर्ट: वंदना रेवांचल तिवारी)
धान की फसल का सीजन चल रहा है. लेकिन धान की फसल में रोग लगने का खतरा ज्यादा रहता है. इसको लेकर किसान चिंतित रहते हैं लेकिन अब उन्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि आज हम उन्हें इस फसल में लगने वाले प्रमुख रोग और उनसे बचाव के तरीकों के बारे में बताने जा रहे हैं.

मध्य प्रदेश के रीवा कृषि महाविद्यालय के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ आरपी जोशी लोकल 18 को बताते हैं कि विंध्य क्षेत्र में धान की फसल में प्रमुख रूप से 6 प्रकार के रोग लगने का खतरा रहता है, जो फसल की ग्रोथ को प्रभावित करने के साथ ही फसल की पैदावार पर भी असर डालते हैं.

खैरा रोग: इस रोग में पौधारोपण के दो हफ्ते बाद पुरानी पत्तियों के आधार भाग में हल्के पीले रंग के धब्बे पड़ना शुरू हो जाते हैं. इस रोग का प्रकोप होने पर पौधा बौना हो जाता है. खैरा रोग से बचाव के लिए किसान खेत में 20 से 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से रोपाई के पहले खेत में प्रयोग करें.

झुलसा रोग: पौधारोपण से लेकर दाने बनने तक की अवस्था में इस रोग के लगने का खतरा ज्यादा रहता है. पौधे की पत्तियों और तने की गांठ पर इसका प्रकोप ज्यादा होता है. ऐसा होने पर पौधे पर गहरे भूरे रंग के साथ ही सफेद रंग के धब्बे पड़ जाते हैं. झुलसा रोग से बचाव के लिए किसान बुवाई से पहले बीज का उपचार करें. जिस पौधे पर रोग दिखाई दे, उसे उखाड़कर फेंक दें.

पर्ण चित्ती या भूरा धब्बा: यह रोग मुख्य रूप से पत्तियों, पर्णछंद और दानों को प्रभावित करता है. पत्तियों पर गोल अंडाकार छोटे भूरे धब्बे बनते हैं और पत्तियां झुलस जाती हैं. इस रोग से बचाव के लिए किसान बुवाई से पहले बीज का उपचार करें. जिस पौधे पर रोग दिखाई दे, उसे उखाड़कर फेंक दें.

<!–StartFragment –><span class=”cf0″>जीवाणु पत्ती झुलसा रोग: यह मुख्य रूप से बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में ज्यादा प्रभावी होता है. इस मौसम में धान की फसल में जीवाणु पत्ती झुलसा रोग के आने की संभावना है. इसकी वजह से आगे जाकर पूरी पत्ती पीली पड़ने लग जाएगी. इसकी रोकथाम के लिए कापर हाइड्रोक्साइड 1.25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से 150 लीटर पानी में मिलाकर 10-12 दिन के अंतराल पर छिड़काव करें.</span><!–EndFragment –>

कंडुआ (फाल्स स्मट): कंडुआ अक्टूबर से नवंबर तक धान की अधिक उपज देने वाली प्रजातियों में आता है. जिस खेत में यूरिया का प्रयोग अधिक होता है और वातावरण में काफी नमी होती है, उस खेत में यह रोग प्रमुखता से आता है. धान की बालियों के निकलने पर इस रोग का लक्षण दिखाई देने लगता है. इससे बचाव के लिए नमक के घोल में धान के बीजों को उपचारित करें.

शीथ झुलसा (अंगमारी रोग): यह रोग राइजोक्टोनिया सोलेनाइन नामक फफूंदी से फैलता है. पौधे के आवरण पर अंडाकार जैसा हरापन और उजला धब्बा पड़ जाता है. जल की सतह के ऊपर पौधे में यह रोग प्रभावी होता है. शीथ झुलसा की अवस्था में नाइट्रोजन का प्रयोग कम कर देना चाहिए. खेत में रोग को फैलने से रोकने के लिए खेत से समुचित जल निकास की व्यवस्था की जाए, तो रोग को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है.
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